वाराणसी। हमारे देश में भिन्न-भिन्न भाषाएं हैं। अनेकता में एकता हमारे देश की पहचान है। शोध एवं शिक्षा के लिए जैसे काशी जानी जाती हैं, वैसे ही तमिल भी जाना जाता है। उक्त बातें भारतीय भाषा समिति, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार तथा हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा आयोजित ‘भारतीय भाषाओं में अन्तर्सम्बन्ध एवं हिन्दी भाषा में शोध के नये धरातल’ विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला के दूसरे दिन प्रथम सत्र में चीनी एवं गन्ना राज्यमंत्री संजय सिंह गंगवार ने कही।
कुलपति प्रो. आनंद कुमार त्यागी ने कहा कि भारतीय भाषाओं में संवाद का कायम रखना, हमारे समय, समाज और राष्ट्र के लिए अतिमहत्वपूर्ण है। भारतीय भाषाओं में ध्वनि विज्ञान की दृष्टि से काफी समानता है। दुनिया में जितनी भी भाषाएं हैं, उन सबका उद्भव व विकास कहीं न कहीं भारतभूमि से ही हुआ है। साहित्यकार होने के नाते केवल हम साहित्य तक ही सीमित न रहकर भारतीय भाषाओं के जड़ तक जाएं और उसपर शोधपरक कार्य करें, जिसमें टेक्नोलॉजी हमारी मददगार है।
कार्यशाला के बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए विभागाध्यक्ष प्रो. निरंजन सहाय ने कहा कि भाषिक विभिन्नता के बावजूद भारत की भाषाओं में गहरा अन्तर्सम्बन्ध हैं। विषयवस्तु, शैली, व्याकरणिक तत्वों की समानता जैसे अनेक पहलू हैं जिनकी खोजबीन इस कार्यशाला में जारी है। कविता के बिना समाज में सद्भाव जीवित नहीं रह सकता है। साहित्य ही समाज में सद्भाव को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक पहुंचाने का सबसे सहज तरीका है। उन्होंने कहा कि जब भाषा पर बात हो रही है तो उसकी अंतर्वस्तु को न भूलें। उन्होंने कहा कि आज जरूरत है पूरी दुनिया को काशी बनाने की। काशी ज्ञान, संस्कृति और भाषा का प्रचार के केंद्र के रूप में दिखाई पड़ता है। उन्होंने कहा कि संस्कृत का कोई भी कवि एकभाषीय नहीं है। यही कारण है कि लोक उसे बचाते आया है। लोक उसे ही बचाता है, जिसमें न्याय की भावना होती है। यह महत्वपूर्ण बातें नई दिल्ली के देशबंधु कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. बजरंग बिहारी तिवारी ने कही।
भाषा पर बात करते हुए हिन्दी विभाग, वसंत महिला महाविद्यालय, राजघाट की अध्यक्ष प्रो. वंदना झा ने कहा कि जब हम अपनी भाषायी विरासत को टटोलेंगे तभी हम अपने सांस्कृतिक विरासत को जान पाएंगे । भाषा ही हमारे ज्ञान के रास्ते का निर्माण करती है। मणिपुरी भाषा के कवि नीलकांत की कविताओं को याद करते हुए आपने बताया कि उनकी कविता भारतीय एकता को अपने मे समेटे हुए है। वह अपनी कविता में भारत को ‘अमृत की संतान’ कहते है।
कोई भी साहित्य भाषा में ही निर्मित होता है । भाषा के अंतर्गत जो साहित्य का निर्माण होता है उसमें मूल चीज संवाद का होता है। यदि उर्दू और तमिल को छोड़ दें तो सबका जन्म लगभग एक साथ हुआ। विश्वविद्यालयों में इस बात पर भी शोध होना चाहिए कि अनुवाद सही स्वरूप क्या है? क्योंकि अनुवाद ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम दूसरे भाषाओं की विचारों को आत्मसात कर सकते हैं। भाषाओं में मूलभूत एकता संस्कृति की सामाजिक समस्या दिखाई देती है। यह बातें डॉ. इंदीवर ने बताई।

अध्यक्षीय उद्बोधन में बीएचयू के हिन्दी विभाग के प्रो. राजकुमार ने कहा कि बिना संवाद के शोध संभव नहीं है। अलग-अलग साहित्यों के बीच परस्पर संवाद की आवश्यकता है। भाषायी समझ के लिए हवाई जहाज की यात्रा की नहीं, बल्कि पैदल यात्राओं की जरूरत है। 19वीं शती में भाषायी मानचित्र ने भाषा को एकसूत्र में बांधने का प्रयास किया। यूरोप के भाषायी मॉडल को जब आप भारत पर लागू करते है तो भाषाओं का सीमांकन करना आपकी मजबूरी है, किंतु भारत में यह संभव नहीं है। विचारों का आदान-प्रदान तभी संभव है, जब एक भाषा की बात दूसरी भाषा में की जाए। ज्यादातर शोध आधुनिक साहित्य पर केंद्रित है, इस शोध दृष्टि में कुछ बदलाव की जरूरत हैं। कम से कम हिन्दी के नाम पर जो भाषायी रूप चलते है, उस पर विश्वविद्यालयी शोध किया जाना चाहिए। इसके लिए अलग अलग विषय के विद्वानों को विभागों में नियुक्त किये जाने पर ध्यान देना चाहिए।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. सुरेंद्र प्रताप सिंह ने तथा धन्यवाद उज्ज्वल सिंह ‘उमंग’ ने किया। इस मौके पर प्रो. अनुराग कुमार, डॉ. रामाश्रय सिंह, डॉ. अनुकूल चंद राय, डॉ. विजय रंजन, डॉ. राजमुनि, नन्दलाल, अंकित, राहुल, शिवशंकर यादव, नीतू सिंह, आरती तिवारी, अंशु राय, उमा भारती, वरुणा देवी, दीपक, प्रियंका, सरोज, अमित कुमार, स्तुति, वंदना सिंह, प्रतिभा, हनुमान, मनीष यादव, जनमेजय, प्रज्ञा पाण्डेय, आदि शोध छात्र-छात्राएं मौजूद रहे ।