वाराणसी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की लालसा हर मनुष्य में जन्मजात होती है और समग्र रूप में इनकी संतुष्टि भारतीय संस्कृति का सार है। पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती की पूर्व संध्या पर महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में आयोजित व्याख्यान में यह बात मुख्य वक्ता डॉ. राकेश तिवारी ने कही।
डॉ. तिवारी ने बताया कि व्यक्ति राष्ट्र की आत्मा को प्रकट करने का एक साधन है। इस प्रकार व्यक्ति अपने स्वयं के अतिरिक्त राष्ट्र का भी प्रतिनिधित्व करता हैं। इतना ही नहीं, अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए राष्ट्र जितनी भी संस्थाओं को जन्म देता हैं, उसका उपकरण व्यक्ति ही हैं और इसलिए वह उनका भी प्रतिनिधि है। सामाजिक परिदृश्य में व्यक्ति तथा समाज में किसी प्रकार विरोध नहीं है। विकृतियां तथा अव्यवस्था की बात छोड़ दें, उन्हें दूर करने के उपाय भी जरूरी होते हैं, किन्तु वास्तविक सत्य यह हैं कि व्यक्ति और समाज अभिन्न और अभिवाज्य हैं। सुंसस्कृत अवस्था यह हैं कि व्यक्ति अपनी चिन्ता करते हुए भी समाज की चिन्ता करेगा। जिस प्रकार राष्ट्रीय सेवा योजना व्यक्ति को समाज के उत्थान के लिए कार्य करने हेतु प्रेरित करती है, उसी प्रकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय, एकात्म मानववाद जैसे विचार समाज में सामाजिक समरसता एवं सर्वांगीण विकास की आधारशिला रखने में हमारे मार्गदर्शक हैं।
डॉ. तिवारी ने कहा कि सेवा का तात्पर्य ऐसे कार्यों से है, जिनसे समाज के वंचित वर्ग को उसके अधिकारों की प्राप्ति हो सके। उसका हित हो सके और उसे समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके। ऐसी सेवा ही भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान की मूलभूत आधारशिला है। राष्ट्र की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये राज्य उत्पन्न होता हैं। राष्ट्र निर्माण केवल नदियों, पहाड़ों, मैदानों या कंकड़ों के ढेर से ही नहीं होता और न ही यह केवल भौतिक इकाई ही है। इसके लिए देश में रहने वाले लोगों के हृदय में उसके प्रति असीम श्रद्धा की अनुभूति होना प्रथम आवश्यकता है। इसी श्रद्धा की भावना के कारण हम अपने देश को मातृभूमि कहते हैं।
मुख्य वक्ता ने कहा कि निर्बलता, असहायता, दरिद्रता का लाभ शक्ति सम्पन्न तथा साधन सम्पन्न वर्ग न उठा सकें, सब न्याय की सीमाओं में अपने कार्य को करें, इसके लिए राज्य का निर्माण किया जाता हैं। अंत्योदय’ दीनदयाल के अन्तः करण की आवाज थी। इसका प्रमुख कारण था उनके द्वारा बचपन से ही गरीबी और अभाव को झेलना। समष्टि जीवन का कोई भी अंगोपांग, समुदाय या व्यक्ति पीड़ित रहता है तो वह समग्र यानी विराट पुरुष को विकलांग करता है। इसलिए अंत्योदय सांगोपांग समाज-जीवन की आवश्यक शर्त है। अंत्योदय का अर्थ समाज के सबसे निचले तबके के लोगों की मदद करना है। व्याख्यान की अध्यक्षता समन्वयक डॉ. केके सिंह ने की।
डॉ. तिवारी ने आगे उपाध्याय जी के द्वारा राष्ट्र एवं राज्य में बताये गए अंतर पर प्रकाश डालते हुए आगे सम्बोधित किया कि राष्ट्र एक स्थायी सत्य हैं।
वहीं राज्य की आवश्यकता दो परिस्थितियों में होती हैं। पहली आवश्यकता तब होती हैं जब राष्ट्र के लोगों में कोई विकृति आ जाए। ऐसी स्थिति में उत्पन्न समस्याओं के नियमन के लिए जटिलता उत्पन्न हो जाती हैं तथा सार्वजनिक जीवन में व्यवस्था का निर्माण करना आवश्यक हो।