वाराणसी। राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता के निर्माण के अंतर्गत ही भारतीय भाषाओं का निर्माण हुआ है। भारतीय चिंतन परम्परा का विकास सभी क्षेत्रों में समान रूप से हुआ है। समकालीन भारत बोध को आज के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। संस्कृत की वैदिक परम्परा का साहित्य सभी भारतीय भाषाओं का मूल कथ्य है। वैज्ञानिक चिंतन एवं शोध दृष्टियों का आरंभिक विकास भारतीय भाषा परम्परा में हुआ है।
उक्त बातें भारतीय भाषा समिति, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार तथा हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा आयोजित ‘भारतीय भाषाओं में अन्तर्सम्बन्ध एवं हिन्दी भाषा में शोध के नये धरातल’ विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में हैदराबाद विश्वविद्यालय के समकुलपति प्रो. आरएस सर्राजु ने कही। उन्होंने कहा कि मध्य वर्ग के उद्भव के साथ नवीन संस्कृति वर्ग का विकास 19वीं शताब्दी में देखने को मिलता है और यहीं से धीरे-धीरे वर्ग विभेद और भाषायी विभेद देखने को मिलने लगते हैं। भाषाओं में सृजनशीलता का विकास जनतंत्र की जरूरत है।
विशिष्ट अतिथि प्रो. अवधेश कुमार मिश्र ने कहा कि भारतीयों की भांति ही भारतीय भाषाओं के जीन्स भी एक ही है । भारत की सभी छोटी-बड़ी भाषाएं राष्ट्रभाषा है क्योंकि भाषा की सरंचना अमूर्त हैं। भाषा कोई यथार्थ नहीं जबकि मातृभाषा अथवा बोलियां ही यथार्थ हैं। समाजिक विकास के साथ भाषाई परिवर्तन सामान्य घटना है। इंडोरोपियन लोग भाषायी रूप से बहुत उन्नत लोग थे किंतु उनके पास साहित्य नहीं था।
राष्ट्रीय कार्यशाला के विषय प्रवेश करते हुए प्रो. निरंजन सहाय ने कहा कि भारत में भाषाओं का मामला जटिल एवं संवेदनशील है, संविधान सभा के अधिकतर लोग हिन्दी भाषी नहीं थे, लेकिन उन्होंने हिन्दी भाषा का समर्थन किया। इसमें कोई विवाद नहीं कि भारत की माध्यम भाषा हिन्दी ही है और संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने की क्षमता हिन्दी में ही है। भारत में शोध की परंपरा उपनिषद काल से है। शिक्षक, अध्यापक, आचार्य, गुरु का विभेद तैतरीय उपनिषद के संदर्भ देखने को मिलता है । विद्या केवल ज्ञान नहीं, शिक्षा नहीं, अपितु अस्तित्व, अस्मिता, शोध और संधान के गूढ़ अर्थ रूप में है।
मूल रूप से राष्ट्रीय शिक्षा नीति, भाषा की नीति है। इस शिक्षा नीति का आधार प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा और इसका उद्देश्य है। पाणिनि का व्याकरण, सामान्य संस्कृत का व्याकरण नहीं है, यह सभी भाषाओं के लिए है। भारतीय शिक्षा नीति ने केवल समस्याएं नहीं बताई अपितु उनके समाधान हेतु शोध की आवश्यकता पर भी जोर दिया है। सारा ज्ञान भाषा के द्वारा ही आता है, इसलिए भाषा विज्ञान अध्ययन अत्यंत आवश्यक हो जाता है । भाषा विज्ञान के साथ एक चीज जोड़ दी जाती है कि यह केवल भाषा विज्ञान विभाग एवं हिंदी विभाग विभाग वालों को पढ़ना चाहिए जबकि भाषा सभी विषय के विशेषज्ञों की जरूरत है। भाषा विज्ञान और प्रकृति को लेकर हर विश्वविद्यालय को चाहिए कि वे छात्र-छात्राओं को शोध हेतु प्रेरित करें। उक्त बातें अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. चांद किरण सलूजा ने कही। धन्यवाद ज्ञापन प्रो. अनुराग कुमार ने तथा संचालन डॉ. विजय रंजन ने किया।
दूसरे सत्र की अध्यक्षता कर रहे ज्ञानदेवमणि त्रिपाठी ने कहा कि भाषा भेद को मिटाती है। यह देशकाल और समयानुसार बदलते रहता है। भाषा की अनेकरूपता को स्थिर करने के लिए नए व्याकरण की जरूरत है। भाषा या साहित्य के मूल्यांकन के लिए ऑब्जेक्टिव नहीं सब्जेक्टिव होना होगा ।
हमारी लड़ाई अंग्रेजी भाषा से नहीं है, बल्कि अंग्रेजियत से है। वो शब्द जो प्रचलन में आ चुका है, उन्हें स्वीकारने में कुंठा का भाव नहीं होना चाहिए। वह भाषा जो आम जनता तक न पहुंच पाती वह किसी काम की नहीं । उक्त बातें “भारत में भाषा शिक्षण परम्परा और भारतीय भाषाओं में अन्तर्सम्बन्ध” विषय पर रविनंदन सिंह ने कही। दूसरे सत्र का संचालन डॉ. रामाश्रय सिंह तथा धन्यवाद ज्ञापन शोध छात्रा प्रज्ञा पाण्डेय ने किया।
इस मौके पर डॉ. अनुकूल चंद राय, डॉ. राजमुनि, डॉ. सुरेंद्र प्रताप सिंह, नन्दलाल, अंकित, राहुल,शिवशंकर यादव, उज्ज्वल सिंह ‘उमंग, वंदना सिंह, प्रतिभा, हनुमान, मनीष यादव, जनमेजय, प्रज्ञा पाण्डेय, नीतू सिंह, आरती तिवारी, अंशु राय, उमा भारती, वरुणा देवी, दीपक, प्रियंका, सरोज, अमित कुमार, स्तुति आदि शोध छात्र-छात्राएं मौजूद रहे।