वाराणसी। दिल्ली विश्वविद्यालच के प्रो. रविरंजन ने कहा है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व’ के मायनों में लोकतंत्र वास्तव में अपने सच्चे अर्थों में प्रतिनिधि नहीं होता है, क्योंकि यह समाज के बड़े हित को समायोजित करने में विफल है।
बीएचयू के राजनीति विज्ञान विभाग में बुधवार को आयोजित व्याख्यान में उन्होंने कहा कि संख्या में भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है की सबसे अच्छा काम करने वाला लोकतंत्र नहीं है। भारत में जीतने वाली पार्टी का वोट शेयर अगर हम देखें तो ज्यादातर लगभग 36% से 49% है और शेष प्रतिशत निजी सदस्यों द्वारा प्रतिनिधित्व करने के लिए छोड़ दिया जाता है। निजी सदस्य यह सुनिश्चित करते हैं कि सत्तारूढ़ सरकार द्वारा नीति निर्माण के लिए शामिल नहीं किए गए मुद्दों पर भी ध्यान दिया जाए। उनमें से अधिकांश हमारे दैनिक जीवन से जुड़े हुए हैं।
प्रो. रविरंजन ने कहा जिस तरह से एलजीबीटीक्यू अधिकारों और इंटरनेट के विनियमन के बिलों को निजी सदस्यों द्वारा पेश किया गया था, जो अंततः अधिनियम भी बन गए, ये पीएमबी की महत्ता को दर्शाता है। निजी सदस्यों के विधेयकों के माध्यम से विधायी प्रक्रिया का लोकतांत्रीकरण हो जाता है। स्पीकर का मानना था कि प्रतिनिधित्व के विचार में भी संकट है। अक्सर निर्वाचित सदस्य इस बारे में अस्पष्ट रहते हैं कि वह किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? क्या यह वह क्षेत्र है जहां से वे जीते हैं? क्या वे लोग हैं जिन्होंने उन्हें जिताया है? या यह वह राजनीतिक दल है जिसके वे सदस्य है? संकट प्रतिनिधियों और मतदाताओं दोनों के लिए है।
उन्होंने बताया कि ज्यादातर मामलों में, पार्टी के सदस्यों की स्वतंत्रता कम हो जाती है, क्योंकि उन्हें राजनीतिक दल की आवाज के खिलाफ काम करने, सोचने या बोलने की सराहना नहीं की जाती है। पीएमबी विधायी प्रक्रिया में अधिक से अधिक जनहित याचिकाएं लाने का अवसर देता है। पीएमबी सदस्यों की विशेष ‘विधायिका के रूप में संसदीय’ भूमिका को बढ़ाना चाहता है और निजी सदस्य विधायी प्रक्रिया के माध्यम से सार्वजनिक चिंताओं को दूर करने के लिए एक वैकल्पिक तरीका प्रदान करता है।
वक्ता ने भारतीय विधानमंडल और पीएमबी के कामकाज में कई भ्रांतियों पर प्रकाश डाला। भारतीय विधायिका में पीएमबी के लिए आवंटित समय बहुत कम है। 16वीं लोकसभा में ही देखा जाए तो लगभग ‘एक हजार’ पीएमबी बहस में बिना चर्चा के रह गए थे, जबकि इंग्लैंड में लगभग 6% अधिनियम निजी सदस्यों के बिलों का परिणाम होते हैं। भारतीय विधायिका में अब कार्यपालिका का वर्चस्व है, क्योंकि यह साथी विधायिकाओं की भूमिका को सीमित करती है। लोकतंत्र सरकार का अच्छा रूप नहीं है। यह सरकारों के सबसे खराब रूपों में अच्छा रूप है। केवल निरंतर जांच और नागरिकों द्वारा सक्रिय भागीदारी ही कार्यपालिका-प्रभुत्व वाले भारतीय लोकतंत्र में बदलाव ला सकती है।
मुख्य वक्ता का स्वागत सत्र के संचालक प्रो. तेज प्रताप सिंह और विभागाध्यक्षा प्रो. शुभा राव ने किया। व्याख्यान को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया गया था। तीन प्रश्नों के रूप में वक्ता ने विस्तार से उत्तर दिए। प्रश्न थे: लोकतंत्र और प्रतिनिधित्व का विचार कैसे जुड़ा हुआ है? क्या प्रतिनिधित्व के विचार में ही संकट या त्रुटी है? और, कैसे लोकतंत्र, विधायन और प्रतिनिधित्व आपस में जुड़े हुए हैं और निजी सदस्य बिल कैसे महत्वपूर्ण हैं?