नई दिल्ली। जब भी कोई सफलता हासिल करता है तो उसके सामने इसे कायम रखने की चुनौती बढ़ जाती है। ऐसी ही स्थिति अब थॉमस कप जीतने के बाद भारतीय बैडमिंटन के सामने खड़ी है। न सिर्फ बैडमिंटन को चाहने वाले, बल्कि अबतक इस खेल से दूर रहे लोग भी इस ऐतिहासिक जीत के बाद अब बैडमिंटन खिलाड़ियों से जीत की उम्मीद लगाने लगे हैं।
भारत को बैडमिंटन में पहली बड़ी सफलता प्रकाश पादुकोण ने 1980 में दिलाई थी, जब उन्होंने प्रतिष्ठित ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता जीती थी। उस दौर में एकबारगी बैडमिंटन की ओर युवाओं का रुझान बढ़ा, लेकिन ऐसी अगली उपलब्धि हासिल करने के लिए 21 साल इंतजार करना पड़ा। पुलेला गोपीचंद ने 2001 में भारत को दूसरी बार यह प्रतिष्ठित ट्रॉफी दिलाई थी। इसके बाद भारतीय बैडमिंटन में उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया।
एक अरसा बीत जाने के बाद महिलाओं ने बैडमिंटन के सफर की कमान थामी। सायना नेहवाल और पीवी सिंधु की सफलताओं ने भारतीय बालिकाओं में भी शटलर बनने का जज्बा जगाया। सिंधु ने दो ओलंपिक पदक जीतकर इस दिशा में बेहतर कदम बढ़ाया। सिंधु ने 2019 में वर्ल्ड चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता। उससे पहले चार वर्षों में लगातार दो रजत और दो कांस्य पदक जीते थे।
सायना नेहवाल भी विश्व बैडमिंटन सुपर सीरीज में 10 बार विजेता और पांच बार उपविजेता रही हैं। इसके अलावा ग्रांप्री में उनके पास 10 खिताब हैं। कुल मिलाकर इन खिलाड़ियों की सफलताओं ने देश में बैडमिंटन के प्रति युवाओं का रुझान बढ़ाया।
इसकी क्रिकेट से तुलना करें तो एक समय हर कोई सुनील गावसकर, गुंडप्पा विश्वनाथ, संदीप पाटिल, बिशन सिह बेदी, चंद्रशेखर, इरापल्ली प्रसन्ना जैसा बनना चाहता था। समय बदला और 1983 में क्रिकेट विश्वकप जीतने के बाद लोग कपिलदेव, यशपाल शर्मा, मोहिंदर अमरनाथ, दिलीप वेंगसरकर जैसे खिलाड़ियों को आदर्श मानने लगे। आज यही स्थिति किंदांबी श्रीकांत, लक्ष्य सेन, प्रणय, चिराग शेट्टी और सात्विक साईराज के सामने है। वे युवा बैडमिंटन खिलाड़ियों के आदर्श बनकर उभरे हैं। अब इनके कंधों पर दायित्व है कि खेल को इतना लोकप्रिय बनाएं, जिससे ऐसे खिलाड़ी पैदा हों, जो अगले कुछ दशकों तक भारत को बैडमिंटन का सिरमौर बनाए रखें।
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